... क्योंकि युद्ध की कीमत रणभूमि में ही नहीं, घरों में भी चुकानी पड़ती है
पांच दशक पुराना इंतज़ार: ‘The Missing 54’ की गूंज आज भी भारत-पाक सीमा पर सुनाई देती है
भारत-पाक युद्ध सीजफायर के बाद विराम हो गया है। युद्ध कोई नहीं चाहता, लेकिन यह समय की मांग है। भारत ने सेनाओं को छूट दे रखी है कि उधर से कोई भी फायरिंग हो, इधर से मुंह तोड़ जवाब दिया जाय। इसी बीच सोशल मीडिया पर 1971 युद्ध के उन बंदियों को भी न्याय दिलाने की मांग उठने लगी है, जिनके इंतज़ार में उनके परिजन आज भी आस लगाए बैठे हैं। वह 54 सैनिक कहां हैं, जीवित हैं या शहीद हो गये, किसी को कुछ नहीं पता। कहा जाता है कि वह सैनिक आज भी पाकिस्तान के जेलों में कैद हैं। लेकिन, पाकिस्तान इस बात से इंकार कर चुका है।
भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध की जीत ने जहां एक स्वतंत्र बांग्लादेश को जन्म दिया, वहीं इस ऐतिहासिक उपलब्धि की छाया में दर्जनों भारतीय परिवार ऐसे हैं, जिनकी आंखें आज भी अपनों की राह तक रही हैं। ये वे परिवार हैं जिनके सिपाही उस युद्ध के बाद ‘लापता’ हो गए। इतिहासकारों ने इन्हें ‘The Missing 54’ का नाम दिया है। ये ऐसे वीर जवान हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे युद्ध के बाद पाकिस्तान की जेलों में बंद थे, लेकिन कभी लौटकर अपने वतन नहीं आए।
इन सैनिकों की कहानी सिर्फ युद्ध के मैदान में खो जाने की नहीं, बल्कि एक लंबी चुप्पी, राजनीतिक असहजता और मानवीय संवेदनाओं की अनदेखी की दास्तान है। भारत और पाकिस्तान भले ही 1971 के युद्ध के बाद सीमा विवादों पर समझौता कर चुके हों, लेकिन इन परिवारों के लिए वह युद्ध आज तक खत्म नहीं हुआ है।
इन 54 सैनिकों को लेकर वर्षों से प्रयास होते रहे, लेकिन हर बार उम्मीदों को एक नई दीवार से टकराना पड़ा। कई बार भारत सरकार ने संसद में इस मुद्दे को उठाया, लेकिन कोई निर्णायक समाधान नहीं निकल सका। वर्ष 2019 में संसद में नरेंद्र मोदी सरकार ने बताया कि कुल 83 सैनिक अब भी लापता हैं, जिनमें से 54 के पाकिस्तान की हिरासत में होने की आशंका है। लेकिन पाकिस्तान लगातार इससे इनकार करता रहा है।
पत्रकार चंदर सुता डोगरा ने अपनी पुस्तक Missing in Action: The Prisoners Who Never Came Back में इन कहानियों को दस्तावेज़ की तरह संजोया है। यह किताब केवल भावनात्मक वर्णन नहीं बल्कि एक सघन पत्रकारिता का उदाहरण है, जिसमें सैन्य दस्तावेज़ों, डिक्लासिफाइड फाइलों, और परिवारों के साथ की गई बातचीत के ज़रिए वर्षों की अनदेखी पर रोशनी डाली गई है। उन्होंने यह सवाल उठाया कि क्या इन सैनिकों को जानबूझकर युद्धबंदियों के रूप में वापस नहीं लाया गया, क्या वे सौदेबाज़ी का हिस्सा बने या राजनीतिक असुविधा के शिकार हो गए?
ऐसे ही एक दिल दहलाने वाला मामला था 1966 का, जब एक वायरलेस ऑपरेटर को मृत घोषित कर दिया गया था। लेकिन वर्षों बाद तीन युद्धबंदियों ने उनके परिवार से संपर्क कर बताया कि वह ज़िंदा हैं और पाकिस्तान में कैद हैं। इसके बावजूद स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया।
इन सैनिकों की पहचान केवल नामों तक सीमित नहीं है। वे सजीव यादें हैं, परिवारों के अधूरे सपनों का हिस्सा हैं। विंग कमांडर हर्सर्न ‘हाई स्पीड’ गिल ऐसे ही एक सैनिक थे जिनका विमान 1971 में सिंध क्षेत्र में मार गिराया गया था। उनके परिवार ने वर्षों तक इंतज़ार किया। उनकी पत्नी कैंसर से दम तोड़ गईं, बेटे ने इस पीड़ा में आत्महत्या कर ली और बेटी का कोई अता-पता नहीं है। उनके भाई गुरबीर सिंह गिल आज भी उम्मीद का दामन थामे बैठे हैं। उनका कहना है, “सच कहूँ तो, मैंने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी है। जब तक सत्य सामने नहीं आता, उम्मीद ज़िंदा रहती है।”
1983 और 2007 में इन लापता सैनिकों के परिवारों के प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान गए, उन्होंने जेलों का दौरा किया, कैदियों की तस्वीरें और विवरण इकट्ठा किए। उनका आरोप था कि पाकिस्तान ने जानबूझकर कैदियों तक उनकी पहुंच रोकी। हालांकि, पाकिस्तान ने इस आरोप को सिरे से नकार दिया।
इन सभी वर्षों में सवाल वही बना रहा—क्या ये सैनिक मारे गए थे, क्या वे पाकिस्तान में थे और जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन हुआ? भारत सरकार ने 1990 के दशक में हलफनामों के जरिए इनमें से 15 सैनिकों को मृत घोषित कर दिया, लेकिन बाद में उन्हें दोबारा ‘लापता’ की सूची में डाल दिया गया। यह विरोधाभास न केवल अफसरशाही की असंवेदनशीलता को उजागर करता है, बल्कि उन परिवारों की पीड़ा को भी गहराता है, जो आज भी दरवाजे पर किसी दस्तक का इंतज़ार करते हैं।
‘The Missing 54’ की कहानी न सिर्फ युद्ध की एक भूली हुई कड़ी है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक भी है कि शांति की कामना के बावजूद युद्ध की कीमत सिर्फ रणभूमि में नहीं, बल्कि घरों के भीतर भी चुकानी पड़ती है। और जब तक उन 54 परिवारों को जवाब नहीं मिलते, तब तक 1971 का युद्ध उनके लिए हर दिन एक नया मोर्चा है।